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शनिवार, 27 नवंबर 2010

क्या इसी को कहते हैं श्रद्धांजलि ?


कल थी दिनांक २६ नवम्बर २०१० , कल से ठीक दो साल पहले देश में जो कुछ भी हुआ वह नही होना चाहिये था । कितने मासूम बेगुनाह लोग मारे गये शायद इसकी ठीक ठीक गणना सरकार ने दो सालों में कर ली होगी । ऐसा मै इसलिये कह रही हूँ क्योकिं मरने वालों को मुआवजे दिये गये होंगे (भले ही वो कागज पर ही दिये गये हों) । जितना दुख मुझे तब इस घटना को अखबार के पहले पन्ने पर पढ कर हुआ था उससे भी कही ज्यादा दुख आज हुआ क्योकि आज अखबार के मुख्य पृष्ठ पर हमारे देश के प्रधानमंत्री जी ने जो बयान दिया वो कुछ इस प्रकार था------
"इन हमलों में मरने वालो को उनके परिजनों के साथ समूचा देश याद कर रहा है हम संकल्प करते हैं कि मानवता के खिलाफ इस अपराध के गुनहगारों को सजा दिलाने की कोशिश को तेज करेंगें ।"
बीते दो वर्षों में सरकार सिर्फ यह तय कर पाई कि हम कोशिश को तेज करेंगें।
क्या सरकार को अपनी कोशिशों का लेखा जोखा नही देना चाहिये था ? क्या सरकार को नही चाहिये था कि मरने वालों के परिजनों के कुछ हाल ही ले लेते ? क्या वाकई सरकार को ऐसी घटनाओं के होने पर दुख होता है ,या सिर्फ सरकार बचाने की चिंता में ही उलझी रहती है । और विरोधी इसे मात्र एक अवसर के रूप में देखते हैं 

आज कल sms का भी अजीब सा प्रचलन चला है कल ही मेरे पास एक sms आया 
 "as today is 26/11, please wear white cloths for peace in the memory of all those who lost their lives last year in mumbai terr. attck and forward it to at least 15 people. " 
मुझे यह बिल्कुल समझ नही आया कि सफेद कपडे पहनना और १५ लोगों को यह भेजना  कैसे उन लोगो के लिये मददगार होगा जिनको मेरी सच्ची मदद का एक छोटा सा कदम , उनकी जिन्दगी बदल सकता है या बेहतर कर सकता है 
यदि आप पाठ्कों को कुछ समझ आता हो तो कृपया मुझे बताने का कष्ट करें ।
हम तो बस ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि देश में सदा अमन चैन बनाये रक्खे ताकि हमारे नेताओं को श्रद्धांजलि देने की परम्परा ना निभानी पडे ।
चाहे दो आंसू भी आँखो में
मेरे जाने पर ना लाना ,
मेरी शहादत का चर्चा भी
चाहे कभी जुबां पर मत लाना ।
गर मन हो कभी तेरा 
मुझे याद कर लेने का ,
किसी गरीब दुखियारे को
बस दो रोटी तुम दे देना ॥

बुधवार, 24 नवंबर 2010

काश

ये उन सभी लोगो के लिये है जो काश शब्द का प्रयोग करते है , काश अच्छा शब्द है किन्तु तब जब इसे हम भविष्य बनाने के लिये प्रयोग करें ,क्यो कि समय निकलने के बाद जब जब हम इसको बोलते है ,  तो हमेशा ये एक टीस के साथ ही आता है । 
काश  ……







जीवन के हर मोड पर ,
चुप रही ना होती ।
अनगिनत ताड्नायें ,
 सही ना होती ।

जाने कितनी बार  ,
किया खुद पर अत्याचार ।
और आँखो से छीना ,
स्वप्न देखने का अधिकार ।
काश मै
दिन या रात कभी भी ,
एक तो ख्वाब बुनती ।
कभी तो अपने मन की,
आवाज मै सुनती ।

अपना सब कुछ ,
ना करती अर्पण ।
तो शायद ना बिखरता ,
मेरा मन दर्पण ।
काश  मै
अपना भी कोई ,
जहाँ में अस्तित्व बनाती ।
अपने नाम को भी ,
थोडा सम्मान दिलाती  

खामोशी को ना  ,
समझती मै आदर्श ।
किसी पल तो करती,
किसी से तर्क – वितर्क ।
काश मै
अपनी जुबां पर ,
दो शब्द ही ले आती ।
अपने मन की कथा को ,
कोई तो रूप दे पाती ।
काश ……..

रविवार, 21 नवंबर 2010

प्रत्युत्तर्


वो  मालॅ में बम लगाने ही जा रहा था कि घर से फोन आया , उसने फोन उठाया ही था कि भाई का फोन आने लगा, उसने घर का फोन काट कर भाई से बात की । उधर से आवाज आई – ठीक १२ बजकर ५ मिनट पर रिमोट दबा देना । कोई भूल नही होनी चाहिये । जी भाई कोई गलती नही होगी । और गलती करने का तो सवाल भी तो नही उठता था , आखिर इसके लिये उसे पूरे ५० लाख मिल रहे थे । बस आज रात ही  तो उसे यहाँ से बहुत दूर अपने बीवी बच्चे को लेकर जाना था । फिर कोई अच्छा सा काम शुरु करना था । घडी पर ठीक १२ ;०५ हो गया था , उसके रिमोट दबाते ही सैकडों लोग मौत की नींद सो गये । फिर फोन बजा , आवाज आई– बहुत खूब , अब तुम  अपनी जिन्दगी जी लो। पैसे तुम्हारे घर पहुँच जायेंगें ।वह घर आ गया , और टी. वी. खोल कर की हुयी बर्बादी का मंजर देखने लगा । टी. वी. खोलते ही उसे जो पहली तस्वीर दिखी वो उसकी बीवी की थी जिसके हाथ में अभी भी अपने बच्चे के हाथ का टुकडा था । और उसका हर सपना एक ही पल में हमेशा के लिये सिर्फ सपना ही बन कर रह गया ।शायद नियति  ने उसे हर उत्तर दे दिया था ।
औरों का जला आशियां
तो लगा रौशनी हुयी कहीं ,
कम से कम अपने घर का
अंधियारा तो मिट गया  
पल भर में ही आयी
धुंये के साथ ये खबर ,
तेरे ही गुलशन का
हर इक फूल उजड गया ॥

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

एक ब्लाग इंसानियत के नाम

पिछले कुछ दिनों में हम कुछ ऐसे ब्लाग्स पर गये जहाँ किसी एक धर्म विशेष ने अपने को महान और सर्वश्रेष्ठ बताया । महान बताना कोई गलत बात नही , मगर बाकी दूसरों को गलत या कम बता कर अपने को अच्छा बताना , ये किसी बुद्धमत्ता का सूचक नही ।
मुझे तो ऐसा लगा जैसे ब्लाग जगत पर कोई धर्म युद्ध सा चल रहा है । टिप्पणी का उपयोग एक दूसरे पर छींटाकसी के लिये हुआ । शायद यह तो ब्लागिंग का उद्देश्य नही होना चाहिये । कम से कम कोई तो जगह बची रहनी चाहिये जो वैचारिक प्रदूषण से मुक्त हो । और अगर हमें किसी धर्म की बात करनी ही है तो फिर हमें एक ऐसा धर्म चुनना होगा जो वैश्विक है - इंसानियत का धर्म । और मुझे लगता है कि किसी को मेरी इस बात से असहमति नही होगी कि इंसानियत का धर्म सर्वश्रेष्ठ नही  । हम सभी का यह कर्तव्य होना चाहिये कि हम कुछ ऐसा लिखे जिससे जो लोग भी इससे विमुख हो रहे है उन्हे सही मायने में एक सत्य मार्ग मिले । क्यों कि

बुरा कोई मजहब नही , बुरा नही कोई धर्म ,
अगर कुछ सुधारना है तो वो हैं बुरे हमारे कर्म ॥
समझ सको तो समझ लो वेद कुरान का मर्म ,
ना करो ऐसा काम के इंसानियत को आये शर्म ॥

रविवार, 14 नवंबर 2010

पहलू जिन्दगी के

बात कुछ भी हो ,उनका जिक्र हो ही जाता है ।
याद करने का बहाना बन ही जाता है ॥


वो भले हमसे कुछ कहे ,या खामोश रहे ।
नजरों से उनकी प्यार छलक ही जाता है ॥


राहें कितनी भी मुश्किल हो ,हौसले हो अगर ।
मंजिलों का पता राहों से निकल ही आता है ॥


लाख चाहें न किसी से ,हम मिलना तो क्या  ।
जिनसे मिलना हो वो निगाहों में आ ही जाता है ॥


कोशिश करते हैं लाख ,खुश रहने की मगर ।
उदास दिल हो तो आसूँ छलक ही जाता है ॥


चाहे कितना भी संभल के ,कोई फूल चुने ।
कोई कितना भी बचे कांटा चुभ ही जाता है ॥


क्या होगा तकदीर पे ,रोने से रात दिन ।
हाथ की लकीरों को कोई मिटा नही पाता है ।।

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

खूबसूरत साजिश


सुहासिनी अस्पताल जा चुकी थी, मै भी आफिस जाने के लिये तैयार हो रहा था कि मुझे चक्कर आने लगा । इधर काफी दिनों से थोडा सा भी काम करने से ऐसा हो रहा था । सुहसिनी मुझे कुछ दवाइयां दे देती थी ।सोचा कि सुहासिनी के मेडिकल रूम से वो दवा ले लेता हूँ । दवाई की दराज खोलते ही मुझे मेरी मेडिकल रिपोर्ट दिखाई दी , मुझे कैंसर था । रिपोर्ट पढते पढते मेरी नजर वही रक्खी सुहासिनी की डायरी पर पडी । डायरी पर लिखे शब्दों ने तो मेरे चारो तरफ अंधेरा सा कर दिया था । सुहासिनी शादी से पहले जानती थी कि मुझे कैंसर है ,और मेरी उम्र बहुत कम ही बची थी । और इसीलिये उसने मुझसे शादी की थी कि मेरे जाने के बाद मेरी सारी दौलत और जायजाद उसकी हो जायगी । और ये सब केवल उसकी अपनी  सोच नही थी , इस साजिश में मेरा वो दोस्त शामिल था जो तब से मेरे साथ था जब से मैने दुनिया को जानना शुरु किया था । उन दोनो को सिर्फ उस दिन का इन्तजार था मेरी मृत्यु का । मेरी जाते ही उनको अपना घर बसाना था । 
                                                      एक तरफ शशांक जिस पर मै खुद से ज्यादा भरोसा था और दूसरी तरफ थी सुहासिनी जिसे मैने जिन्दगी माना था , उन दोनो ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया मुझे समझ नही आ रहा था । मै एक बिखरे पत्ते की तरह जमीन पर गिर पडा । तभी मुझे एक आवाज सुनाई दी । उन दोनो ने तुम्हारे साथ छल नही किया , तुमको तो जिन्दगी दी है , आखिर रक्त कैंसर तुमको कितने दिन की जिन्दगी देता साल या दो साल । मरना तो तय ही था ना । बचपन मे माँ और पिता जी को खोने के बाद  इस पैसे के सिवा मेरे पास था ही क्या ? प्यार क्या होता है ये तो मैने सुहासिनी से ही जाना था ,शशांक ने हमेशा हर मुश्किल में मेरा साथ निभाया । और अगर यह सच भी हो कि दोनो ने तुम्हारे खिलाफ कोई साजिश तुम्हारी दौलत पाने के लिये की थी तो भी जाते जाते मुझे वो हर खुशी दी थी जिसके लिये मै तरसता था । फिर दौलत तो मेरे जाने के बाद किसी ना किसी को तो मिलती ही । ये आवाज मेरे मन की ही थी । अब मेरे मन में कोई शोक नही था । मैने एक बार फिर से डायरी में लिखे शब्द पढे " शशांक मुझे मालूम है कि तुम मुझे प्यार करते हो लेकिन आकाश अब कुछ ही दिन का मेहमान है , इसलिये मै आकाश से शादी कर रही हूँ मै खुश हूँ कि ये केवल मेरा नही हमारा निर्णय है ,आखिर कुछ ही दिनों की बात है  " मै खुश था कि मेरे दोस्त और पत्नी ने मेरे खिलाफ इतनी खूबसूरत साजिश की थी । अब मै खुशी से मरने के लिये और बाकी बची जिन्दगी खुशी से जीने के लिये तैयार था ।

सोमवार, 8 नवंबर 2010

वापसी


जिस तरह चिडिया दिन भर घूमने के बाद अपने घोसले में लौट कर आती है वैसे ही मै भी लौट रहा था , मगर मै एक या दो दिन बाद नही , करीब ३५ साल बाद लौटा था अपने घोसले की तस्वीर तक धुंधली सी हो गयी थी एक मन में डर भी था कि मेरे वो अपने जिनको एक दिन मै छोड कर शहर गया था , वो मुझको पहचानेंगे भी या नही बस मन में ऐसे ही ढेरों सवाल और एक आशा की किरण साथ लिये मैं वापस रहा था जिस गली , जिस गाँव को अपनों को मैने तरक्की के लिये छोडा था , आज भी जब मै लौट रहा था तो हाथ खाली ही थे जिसको जीवनसंगिनी बनाने के लिये मैने अपनों को छोडा था , आज वो भी मुझे छोड कर जा चुकी थी उस दिन मैने खुद को यह सोच कर समझा लिया था कि ये तो कटु सत्य है कि हर किसी को एक दिन जाना ही है और फिर बेटा तो है ही , उसके साथ रह कर बाकी की उम्र कट जायगी जिस दिन मै रिटायर हो कर अपने आफिस से लौटा घर कर पता चल गया कि अब मै घर से भी रिटायर हो गया हूँ खाने के लिये दो रोटी की कमी तो नही थी मगर एक बूँद प्यार और सम्मान की नसीब नही थी और जब अपमान कराते कराते मन भर गया और आँखो से आंसू निकल पडे तो याद वो घर आया जिसके आंगन ने मुझे चलना सिखाया था
आज मै उनके पास लौट रहा हूँ जिनका मैने अपमान किया था और मन चाहता है कि बस जाते  ही सब मुझे गले से लगा लें सब वैसा ही हो जैसा मै छोड कर गया था नही जानता मेरी वापसी सही है या गलत , मेरी वापसी किसी को अच्छी लगेगी भी या नही मगर चिडिया अपना घोसला छोड कर आखिर जाये भी तो जाये कहाँ ??

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

आओ ऐसे मनायें दीवाली


खुशियों में सभी रंग जाये ,आओ ऐसे मनायें दीवाली |
चंदा भी धरा पर आ जाये ,आओ ऐसे मनायें दीवाली ||

बहुत जलाये दीप सभी ने ,पर मिटा ना अब तक अंधियारा |
गले मिले हर साल मगर ,ना मिला दिलों का गलियारा ||
 प्रीत कि चिंगारी से जला दें ,दुश्मनी जो बरसों से पाली |
खुशियों में सभी रंग जाये , आओ ऐसे मनायें दीवाली ||

धन दौलत की चमक धमक में हमने खोया अपनों को |
लक्ष्मी को पूजा लेकिन ना मान दिया गृहलक्ष्मी को ||
दो पल सोचो आखिर क्या कहती है हमसे दीवाली |
खुशियों में सभी रंग जाये आओ ऐसे मनायें दीवाली ||


बुधवार, 3 नवंबर 2010

कहाँ है मेरा घर ???


जिस आँगन को लीपा बचपन से , 
हर दीवाली बनायी जहाँ रंगोली ।
जिसकी चौखट पर गेरू लगाया ,
और सजायी गुडिया की डोली ॥

माँ के आँचल मे सोयी और ,
खेली भी खूब मै जी भर ।
पर हर दिन एक बात  सुनी ,
है परायी तू , नही है ये तेरा घर ॥

बचपन से जवानी की दहलीज तक ,
हर रात सजाती रही इक सपना ।
दिखता था मुझे जिसमें वो घर ,
जिसे कहती थी मै घर अपना ॥

आखिर वो दिन भी आया ,
जब बाबुल ने मेरा ब्याह रचाया ।
पर हुयी विदा तब माँ ने कहा,
जा बेटी अब पिया के घर ॥

सच ही कहा था माँ ने ,
वो भी घर नही था मेरा ।
कमी ना थी कोई लेकिन फिर भी ,
कही भी नाम नही था मेरा ॥

धीरे धीरे वक्त गुजरता रहा ,
और बढा मेरा परिवार ।
और हो गया था साथ में ,
मेरे अधिकारों का विस्तार ॥

समझने लगी थी अबतो मै ,
इस घर को अपना ।
मगर इक बार फिर ,
टूटा मेरा सपना ॥

बडा हो गया था बेटा ,
और शादी उसकी हो गयी थी ।
अपने ही घर में एक बार फिर ,
मै परायी हो गयी थी ॥

सारी उम्र तलाशती रही बस ,
मै इक अपना छोटा सा घर ।
मगर सदा ही मिली मुझे ,
बस सूनी सी लम्बी डगर ॥

खत्म होने को है अब तो आया ,
इस जीवन का सफर । 
कोई बता दे मुझको इतना ,
कहाँ है मेरा घर ??
कहाँ है मेरा घर ……………



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